Wednesday, March 21, 2018

हनुमान जयंती

                                                जय श्री राम




 शक्ति और ऊर्जा के प्रतीक,वो हर भय से मुक्ति देने वाले है। वो राम के परम भक्त है। वो संकटो को हरने वाले है। ऐसे मंगल मूर्ति हनुमान जी का जन्मोत्सव हनुमान जयंती के रुप में मनाया जाता है। इस बार हनुमान जयंती के पहले जाने बल और बुद्धि के देवता एवं शास्त्रों के ज्ञाता हनुमान जी से जुड़ी हुई सुनी- अनसुनी बातें:-


 जन्म से जुड़ी कथा-

 माना जाता है कि समुद्र मंथन के बाद शिव जी ने विष्णु जी से उनका मोहिनी रूप देखने की इच्छा जाहिर की थी। भगवान शिव की इच्छा पर जब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया तो उसकी सुंदरता को देख कर भगवान शिव का बीज गिर गया था क्योंकि वह भगवान शिव का बीज था इसीलिए उसका व्यर्थ जाना उचित नहीं था और उसी समय माता अंजनी भी संतान प्राप्ति के लिए भगवान शिव की आराधना कर रही थी, इसीलिए भगवान शिव ने वायुदेव से कहा कि वह इस बीच को माता अंजनी के गर्भ में स्थापित करें। तब सही समय आने पर माता अंजनी के गर्भ से केसरी नंदन हनुमान का जन्म हुआ।
           
                            कथा के अनुसार शिव के बीज से उत्पन्न होने के कारण हनुमान जी को शिव का अवतार माना जाता है और उनके जन्म में पवन देव की भूमिका के कारण इन्हें पवनपुत्र भी कहा जाता है।

एक अन्य कथा के अनुसार जब माता अंजनी पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान शिव की आराधना कर रही थी, उसी समय दूसरी और राजा दशरथ पुत्र प्राप्ति के लिए अपनी रानियों सहित यज्ञ कर रहे थे। माना जाता है कि पुत्र प्राप्ति के लिए, यज्ञ से प्राप्त प्रसाद का कुछ भाग, एक पंछी अपने पंजे में लेकर उड़ गया था जो उसने उड़ते समय माता अंजनी के हाथों में गिरा दिया। माता अंजनी ने उसे शिव का प्रसाद समझकर ग्रहण कर लिया। जिससे हनुमान जी का जन्म हुआ।

शनिदेव और हनुमान जी से जुड़ी कथा-
           
                       क्यों चढ़ाते है तेल हनुमान जी को-

जब हनुमान जी, सीता जी को ढूंढते हुए लंका पहुंचे तो उन्होंने पाया कि रावण ने शनिदेव को बंदी बनाया हुआ है। शनिदेव की प्रार्थना पर हनुमानजी ने उन्हें वहां से मुक्त कराया और इसके बदले शनि देव ने हनुमान जी को वचन दिया कि जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन आप की उपासना करेगा और आप को तेल समर्पित करेगा वह शनि की कुदृष्टि के प्रभाव से बचा रहेगा। इसी वजह से माना जाता है कि जब किसी व्यक्ति पर शनि की साढ़ेसाती चल रही हो तो उसे हनुमान जी की उपासना करनी चाहिए ताकि उसे कष्टों से मुक्ति मिल सके।इसी मान्यता के चलते कई मंदिरो में भक्तो द्वारा हनुमान जी को तेल चढ़ाया जाता है ताकि शनि देव की कुदृष्टि से बचा जा सके। 

 नौ ग्रह भी है इनके अधीन -

कहा जाता है कि रावण ने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात नौ ग्रहों को भी अपना बंदी बना लिया था। उसने इन ग्रहो को अपने राज सिंहासन की ओर जाने वाली सीढ़ियों के नीचे कैद करके रखा था। जब हनुमान जी ,सीता जी को ढूंढते हुए लंका पहुंचे थे तब उन्होंने ही इन ग्रहों को रावण की कैद से मुक्त कराया था। शायद इसीलिए कहा जाता है कि हनुमानजी सारे ग्रहों को अपनी पूंछ के नीचे रखते हैं।

      माना जाता है कि जब किसी व्यक्ति के ग्रहों की दशा ठीक ना चल रही हो तो उसे हनुमान जी की उपासना करनी चाहिए।फिर आपके मंगल की दशा ख़राब हो या राहु आपको परेशान कर रहा हो, हनुमान जी की भक्ति मात्र से सारे ग्रह ठीक दिशा में चलने लगते हैं और व्यक्ति का बुरा समय टल जाता है।


हनुमान चालीसा -


 हनुमान चालीसा को दुनिया की सबसे सरल और शक्तिशाली स्तुति माना जाता है।जब व्यक्ति का मन भयभीत हो या नकारात्मक विचारो ने उसे चारो ओर से घेर रखा हो तो हनुमान चालीसा का पाठ उसके मन को हर भय से मुक्त कर शक्ति और ऊर्जा से भर देता है।

 माना जाता है कि प्रातः काल सूर्य के समक्ष नियमित रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करने से सारे ग्रह मजबूत हो जाते हैं।हनुमान चालीसा का पाठ करने से व्यक्ति का मनोबल बढ़ता है और संकट मोचन उसके सारे संकट हर लेते, उसकी समस्त परेशानियां को दूर कर देते है।


समय के साथ हमारी मान्यताएं, आस्था और विश्वास पश्चिमी सभ्यता की चकाचोंध में कहीं विलुप्त होता जा रहा है। इसलिए इस हनुमान जयंती आप सब से निवेदन है कि अपने बच्चों को विद्यालय के किताबी ज्ञान के साथ-साथ हनुमान चालीसा सिखाने और उसके अर्थ को समझाने की शुरुआत अवश्य करें ताकि वह भी इस की शक्ति से परिचित हो सकें।
                              (एक निवेदन )
                                                             
                                   जय श्री राम

Wednesday, March 14, 2018

गणगौर के दोहे

यह व्रत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। गण अर्थात भगवान शिव और गौर अर्थात माता पार्वती का पूजन किया जाता है। कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर पाने की कामना से व्रत करती है तो विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत एवं पूजन करती है।

            इस पूजन में गणगौर माता को पानी पिलाते समय दोहे के रूप में पति का नाम लिया जाता है। उन्हीं में से कुछ मजेदार दोहे------

                          (इन दोहो को बोलते समय आपको पिया जी के स्थान पर अपने पति का नाम लेना है)




  •  मंडलोई परिवार की बहू हूंँ मैं, और टीना मेरा नाम
           पिया जी है पति परमेश्वर, नरसिंहगढ़ ही है मेरे चारों धाम। 

                 (अपने परिवार और शहर का नाम ले )


  • एक दूनी दो, दो दूनी चार, पिया जी को हो गया मुझसे प्यार।



  •  खेत, खेत में क्यारी मैं पिया जी की प्यारी। 


  •  गोरा के मन में है, ईसर, राधा के मन में श्याम
          जो मेरे मन को भावे पिया जी है उनका नाम। 


  •  किसी को वाइट पसंद है, किसी को लाइट पसंद है

           मुझे तो पिया जी की हाइट पसंद है।


  •  32,000 की बग्गी मेरी, 40000 का घोड़ा

           पिया जी के लिए मैंने उज्जैन शहर छोड़ा।


  •  कटोरे में कटोरा, कटोरे में घेवर

           पिया जी मेरी भाभी के देवर।


  •  लाल मिर्च खाते नहीं, हरी मिर्च लाते नहीं

          पिया जी मुझे लिए बगैर कहीं जाते नहीं।


  •  बगीचे में क्यारी, क्यारी में पानी,

           पिया जी मेरे राजा, मैं पिया जी की रानी।


  • सोने के कड़े में हीरे जड़े

          पीछे पलट के देखा तो पिया जी खड़े।


  •  इमली खाऊ, खट्टी -मीठी और मैं खाऊं बोर

           पिया जी है ईसर मेरे,मैं उनकी गणगौर।


  •  गागर में सागर, सागर में पानी

           पिया जी नहीं घर पर ,तो नींद कैसे आनी।


  •  आपकी मुस्कुराहट ने ऐसा अटैक किया

           पिया जी आपको सिलेक्ट किया,बाकी सब को रिजेक्ट किया


  •   मस्तक पर तिलक, गले में हार है

           मुझे पिया जी से पिया जी को मुझसे प्यार है।


  •  वह है दीपक मैं उनकी बाती

           हर जन्म में हो पिया जी मेरे जीवन साथी। 


  •  कमरे में अलमारी ,अलमारी में नोटों की थप्पी 

        पिया जी ने चुपके से ले ली मेरी पप्पी।

      •   1234567 पिया जी है मेरे heaven



        • चप्पल पहनु बाटा ,साड़ी पहनु कोटा

                  पिया जी जाए बाहर, तो मैं करूं टाटा।



            • फागुन का महीना और गुलाबी रंग

                     पिया जी का और मेरा जीवन भर का संग। 



                •  मीरा ने पीया विष का प्याला, राधा ने श्याम को मदहोश कर डाला 
                         गौरी ने पहनाई शिव को माला, गणगौर पूजा से मुझे मिला
                         पियाजी   जैसा दिलवाला। 

                Saturday, March 10, 2018

                शीतला सप्तमी


                शीतला सप्तमी 



                माता का स्वरूप

                स्कंद पुराण के अनुसार माता शीतला को हाथों में कलश, सूप ,झाड़ू तथा नीम के पत्ते लिए हुए गदर्भ(गधा) पर विराजित बताया गया है। जिस तरह लक्ष्मी जी को धन की तथा सरस्वती जी को विद्या की देवी माना गया है ठीक उसी प्रकार शीतला माता को स्वच्छता की प्रतीक,आरोग्यता देने वाली देवी माना गया है। उनके स्वरूप की व्याख्या को लेकर लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं।

                झाड़ू- झाड़ू हमें अपने परिवेश को स्वच्छ रखने का संदेश देती है।
                सूप-सूप जिसका काम अनाज साफ करना होता है हमें स्वच्छ भोजन करने की प्रेरणा देता है क्योंकि ज्यादातर बीमारियां खराब भोजन से होती है।
                कलश- जल से भरा हुआ कलश जल को प्रदूषण मुक्त रखने का संदेश देता है।
                नीम- नीम रोगाणुनाशक का कार्य करता है जिससे बीमारियां उत्पन्न नहीं होती।
                गधा- गधा हमें धैर्य रख कर निरंतर मेहनत करने की प्रेरणा देता है।

                                     एक अन्य मान्यता के अनुसार शीतला माता को चेचक जैसे रोगों की देवी बताया गया है और उसी के अनुसार उनके स्वरूप का वर्णन किया गया है। चेचक में व्यक्ति व्याकुल हो जाता है, सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाड़ू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं और नीम के पत्ते उन फोड़ों के लिए रोगाणुनाशक का कार्य करते हैं। रोगी को ठंडा जल दिया जाता है अतः कलश का महत्व है और गधे की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं इसीलिए माता को गदर्भ(गधा) पर विराजित बताया गया है।
                                  स्वरूप को लेकर मान्यताएं चाहे जो भी हो पर सभी उन्हें स्वच्छताऔरआरोग्यता की अधिष्ठात्री देवी ही बनाती है।

                शीतला माता का पूजन विधान

                होली के त्यौहार के सातवें दिन अर्थात चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को शीतला माता की पूजा की जाती है इसलिए इसे शीतला सप्तमी भी कहा जाता है। चैत्र महीने में जब गर्मी शुरू हो चुकी होती है तो शरीर में अनेक प्रकार के पित्त विकार होने लगते हैं मान्यता है कि शीतला माता का पूजन करने से परिवार में कभी किसी को चेचक और हैजा जैसे विकार नहीं होते तथा ऋतु परिवर्तन के कारण होने वाले रोग जैसे पीत ज्वर, फोड़े, नेत्र रोग आदि दोष ठीक हो जाते हैं। माना जाता है कि शीतला माता का पूजन करने से परिवार में सबको आरोग्य प्राप्त होता है।
                                    शीतला सप्तमी से 1 दिन पहले यानि छठ के दिन शाम को स्त्रियां नहाकर भोग सामग्री बनाती है।अगले दिन सुर्योदय होते ही शीतल जल से स्नान कर पूजन के लिए मंदिरों में जाती हैं,जहां माता को 1 दिन पूर्व बने उसी भोजन का भोग लगाया जाता है।बासी भोजन का भोग लगाए जाने के कारण शीतला सप्तमी को कई स्थानों पर बसौड़ा के नाम से भी जाना जाता है। सप्तमी के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता 1 दिन पूर्व बना भोजन ही नैवेद्य (प्रसाद) के रूप में खाया जाता है। इसके पीछे तर्क यह है कि यह दिन हमें स्मरण कराता है कि ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो चुका है और आज ऋतु का अंतिम दिन है जब बासी भोजन खाया जा सकता है इसके बाद बासी भोजन खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं है।
                                    ज्यादातर ग्रामीण और शहरी अंचलों में शीतला माता को पाषाण (पत्थर) की 7 पिण्डियो के रूप में पूजा जाता है। एक चबूतरे पर या वृक्ष के नीचे सात पत्थर की पिण्डियो को माता के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। उन्हें  सिंदूर, कुमकुम आदि से श्रृंगारित कर उनका पूजन किया जाता है। शीतला माता को विभिन्न पूजन सामग्री और ठंडे भोज्य पदार्थ अर्पित कर उनकी पूजा की जाती है और आरती गायी जाती है। इसके बाद उस स्थान का भी पूजन कर,जल चढ़ाया जाता है जहां होलिका दहन हुआ था। पूजन के पश्चात महिलाएं घर आकर द्वार पर हल्दी या रेपन और कुमकुम से हाथों के छापे बनाती है जिसे सुख-सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
                              शीतला सप्तमी की महत्ता सिर्फ एक ही दिन तक सीमित नहीं है। विवाह पूर्व भी वर/वधू जो माता पूजन करते हैं उसमें शीतला माता की ही पूजा की जाती है। माता की पूजा करने के पीछे मान्यता यह है कि दांपत्य जीवन में प्रवेश करने जा रहे वर/वधु के जीवन में क्रोध और आवेश का ताप ना हो और उनके जीवन में शांति बनी रहे तथा सभी कार्य निर्विघ्न,शांति से संपन्न हो जावे।

                पूजन सामग्री 

                स्थान ,जाति ,समाज और कुल के अनुसार पूजन सामग्री और विधि में थोड़ा बहुत अंतर आ जाता है किंतु फिर भी सामान्य रूप से जो चीज़ें चढ़ाई जाती हैं।-  दही, चने( भिगोए हुए),दाले(भिगोई हुई), गुड़ के चावल, ज्वार के मीठे ढोकले, ज्वार के गहने, पूरी,राबड़ी,गुलगुले, रेपन(चावल और हल्दी को पीसकर बनाया गया लेप) हार-फूल, नारियल, मेहंदी, कुमकुम,हल्दी, जल का कलश, सुहाग सामग्री................... आदि।

                शीतला सप्तमी की कथा 

                शीतला माता की कई कहानियाँ प्रचलित हैं उनमें से एक कहानी के अनुसार माना जाता है कि एक बार शीतला माता धरती पर राजस्थान के डूंगरी गाँव में भ्रमण कर रही थी। माँ शीतला गाँव की गलियों में घूम रही थी तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी फेंका जिससे माता के शरीर में फफोले पड़ गए और पूरे शरीर में जलन होने लगी शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग कर चिल्लाने लगी कि मेरा शरीर जल रहा है कोई मेरी मदद करो लेकिन उस गांव में किसी ने शीतला माता की मदद नहीं की। तब एक कुम्हारन बुढ़िया ने माता को घर के अंदर बुलाकर बिठाया और उनके ऊपर ठंडा जल डाला जिससे माता की जलन कम हो सके। उसने माँ से कहा कि मेरे घर में रात की बनी हुई राबड़ी और थोड़ा सा दही है तुम खा लो तुम्हारे शरीर को ठंडक मिलेगी। फिर कुम्हारन ने माता के बिखरे हुए बाल देख कर कहा कि लाओ मैं तुम्हारी चोटी गुथ देती हूँ जब कुम्हारन माता की चोटी बना रही थी तो उसने देखा कि एक आंख बालों के अंदर छुपी हुई है यह देखकर कुम्हारन डर के मारे घबरा कर भागने लगी तभी माता अपने असली स्वरूप में प्रकट हुई और कहा की बेटी मै शीतला माता हूँ। मैं यहां धरती पर भ्रमण करने आई थी। माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब मैं माता को कहाँ बैठाऊं तब माता बोली बेटी तू क्या सोच रही है तो कुम्हारन हाथ जोड़कर आंखों में आंसू लेते हुए बोली माँ मैं बहुत गरीब हूँ  समझ नहीं आता आपको कहां बैठाऊ।  मेरे घर में ना तो चौकी है ना आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर कुम्हारन के घर पर खड़े गधे की पीठ पर बैठ गई और एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर की दरिद्रता को झाड़ कर डलिया में भरकर फेंक दिया और उस कुम्हारन से कहा बेटी अब तुझे जो भी वरदान चाहिए मुझ से माँग ले।  उसने हाथ जोड़कर कहा कि हे माँ आप इसी डूंगरी गॉँव में स्थापित हो जाओ और जिस प्रकार आपने मेरे घर की दरिद्रता को झाड़ू से दूर कर दिया है उसी प्रकार जो भी चैत्र मास की सप्तमी को आप की पूजा करे और आपको ठंडा भोजन चढ़ावे ,उस की दरिद्रता दूर करना,सब मनोकामना  पूरी करना। तब माता तथास्तु कहकर उसी गॉंव में स्थापित  गई।
                            हे शीतला माता जैसा आशीष उस कुम्हारन पर बरसाया था वैसा ही हम पर भी बरसाना और हमारी सब मनोकामना पूरी करना।
                   
                          एक अन्य कथा के अनुसार एक गांव में एक स्त्री रहती थी जो शीतला सप्तमी की पूजा करती थी और उस दिन ठंडा भोजन करती थी। एक बार उस गॉंव में आग लग गई उसका घर छोड़कर बाकी सारे घर जल गए। गॉंव के सब लोगों ने उससे चमत्कार का रहस्य पूछा तो उसने कहा कि मैं शीतला सप्तमी के दिन ठंडा भोजन लेती हूँ और शीतला माता का पूजन करती हूँ उन्हीं की कृपा से मेरा घर नहीं जला। तब से शीतला सप्तमी  के दिन उस गॉंव में शीतला माता का पूजन आरंभ हो गया।

                शीतला माता की आरती -
                जय शीतला माता, मैया जय शीतला माता,
                आदि ज्योति महारानी सब फल की दाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                रतन सिंहासन शोभित, श्वेत छत्र भ्राता।
                ऋद्धिसिद्धि चंवर डोलावें, जगमग छवि छाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                विष्णु सेवत ठाढ़े, सेवें शिव धाता।
                वेद पुराण बरणत पार नहीं पाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                इन्द्र मृदंग बजावत चन्द्र वीणा हाथा।
                सूरज ताल बजाते नारद मुनि गाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                घंटा शंख शहनाई बाजै मन भाता।
                करै भक्त जन आरति लखि लखि हरहाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                ब्रह्म रूप वरदानी तुही तीन काल ज्ञाता,
                भक्तन को सुख देनौ मातु पिता भ्राता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                जो भी ध्यान लगावैं प्रेम भक्ति लाता।
                सकल मनोरथ पावे भवनिधि तर जाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                रोगन से जो पीडित कोई शरण तेरी आता।
                कोढ़ी पावे निर्मल काया अन्ध नेत्र पाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                बांझ पुत्र को पावे दारिद कट जाता।
                ताको भजै जो नाहीं सिर धुनि पछिताता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                शीतल करती जननी तुही है जग त्राता।
                उत्पत्ति व्याधि विनाशत तू सब की घाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                दास विचित्र कर जोड़े सुन मेरी माता ।
                भक्ति आपनी दीजै और न कुछ भाता।।
                ऊँ जय शीतला माता।

                शीतला सप्तमी के व्यंजन -
                Link:-

                Meetha Pua
                Meethe chawal
                Dahi Vade
                Puri
                Malpua
                Kadhi
                Chane
                Halwa

                होली की कथाएँ


                होली के त्यौहार  से जुडी कथाए 

                फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रंगो का यह त्योहार पारम्परिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन होलिका जलाई जाती है जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन को धुलेंडी  कहा जाता है इस दिन लोग एक दूसरे को रंग,अबीर; गुलाल लगाते है। ढोल  बजा कर होली के गीत गाए जाते है और लोग अपनी पुरानी कटुता को भुला कर गले मिलते है।
                                 


                                इस त्योहार के साथ  कई पोराणिक कथाएँ और मान्यताएँ जुडी हुई है।

                             

                Holika and Prahlad 
                कथा १ -  असुर राजा हिरणाकश्यप भगवान विष्णु से शत्रुता  रखता था। उसने अपनी शक्ति के घमंड में आकर स्वयं को ईश्वर कहना शुरू कर दिया और घोषणा कर दी कि राज्य में केवल उसी की पूजा की जाएगी। उसने अपने राज्य में यज्ञ और आहुति बंद करवा दी और भगवान के भक्तों को सताना शुरू कर दिया। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। पिता के कहने  के बावजूद प्रहलाद भगवान  विष्णु की भक्ति करता रहा। हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र को मारने की भी कई बार कोशिश की परंतु स्वयं भगवान उसकी  रक्षा करते रहे। राजा की बहन होलिका को भगवान शिव से ऐसी चादर मिली थी जिसे ओढ़ने पर आग  उसे जला नहीं सकती थी। होलिका उस चादर  को ओढकर प्रहलाद को गोद में लेकर चिता पर बैठ गई। परंतु विष्णु जी की कृपा से वह चादर उड़कर  प्रहलाद के ऊपर आ गई जिससे प्रहलाद की जान बच गई और होलीका अग्नि में जल गई। माना जाता है तभी से होलिका दहन की प्रथा शुरू हुई।

                Lord Shiva and Kamdev
                कथा २  -होली की एक कहानी भगवान शिव से भी जुड़ी हुई है कहा जाता है कि माता पार्वती भगवान शिव से विवाह करना  थी परंतु भगवान शिव तपस्या में लीन थे. ऐसे में भगवान शिव और पार्वती का विवाह संपन्न कराने के लिए कामदेव ने शिव पर बाण चलाकर उनके तप को भंग दिया। तपस्या भंग हो जाने के कारण शिव को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी जिसके कारण कामदेव भस्म हो गए।  कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति रोने लगी और भगवान शिव से  कामदेव को पुनः जीवित करने की गुहार लगाई।  रति की प्रार्थना पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनः जीवित किया।  माना जाता है कि कामदेव के पुनः जीवित होने की खुशी को ही रंगो के त्यौहार के रुप में मनाया गया था।

                कथा ३ -होली दहन से जुड़ी हुई एक और कथा राजा रघु के शासन काल की है उनके शासनकाल में एक असुर  महिला को वरदान प्राप्ति के कारण मारना मुश्किल हो था ऐसे में गुरु वशिष्ठ ने उपाय बताया कि यदि छोटे बच्चे लकड़ियां और घास को इकट्ठा करके उसमें आग लगाकर उसके चारों ओर परिक्रमा करें, नृत्य करें, ताली बजाएं तो इससे उसकी आसुरी शक्तियां कम हो जाएगी और उसका वध किया जा सकेगा।माना जाता है कि तभी से आसुरी शक्तियों को ख़तम  करने के उद्देश्य से इस पर्व को मनाया जाता रहा है।














                होली दशा

                                                             होली दशा







                     चैत्र कृष्ण पक्ष की दशमी को दशा माता का पूजन तथा व्रत किया जाता है।होली के 10 दिन बाद मनाए जाने के कारण इसे होली दशा कहा जाता है। मनुष्य की दशा ठीक ना हो तो कई बार निरंतर उपाय करने के बाद भी वह स्वास्थ्य की दृष्टि से परेशान रहता है तो कई बार आर्थिक परेशानियां उसका पीछा नहीं छोड़ती।  भाग्य साथ नहीं देता और उसके बनते हुए काम भी बिगड़ जाते हैं अपने घर परिवार की इसी दशा को सुधारने की मनोकामना से सुहागिन महिलाएं चैत्र कृष्ण पक्ष की दशमी को दशा माता का पूजन एवं व्रत करती है।
                            अनेक स्थानों पर यह व्रत होली के अगले दिन से ही प्रारंभ हो जाता है। प्रथम दिन महिलाएं दीवार पर स्वास्तिक बनाकर मेहंदी और कुमकुम की दस-दस  बिंदिया बनाती है और इसके बाद 9 दिन तक रोज इनका पूजन करती है और दशा माता की कथाएं सुनती हैं। महिलाएं 9 दिन तक व्रत रखती हैं तथा फिर दसवें दिन अर्थात चैत्र कृष्ण पक्ष की दशमी को पीपल के पेड़ की छांव में दशा माता का पूजन कर व्रत संपन्न करती है

                पूजन सामग्री:-


                 जल का कलश, कुमकुम, मेहंदी, हल्दी, चंदन, अक्षत, मौली, हार-फूल, दीपक, धूप ,अगरबत्ती, सुहाग सामग्री ,कच्चा सूत, गेहूं ,10 सूत का डोरा, नैवेद्य(भोग),पान का पत्ता आदि।

                पूजन  विधि (कैसे करे पूजा ):-


                दशमी के दिन पीपल के पेड़ की छांव में दशा माता का पूजन किया जाता है एक डंडी वाले पान के पत्ते पर चंदन से दशामाता बनाई जाती है और पीपल के पेड़ पर एक स्वास्तिक बनाकर मेहंदी और कुमकुम से 10-10 बिंदिया लगाई जाती है। इसके पश्चात कुमकुम, हल्दी, मेहंदी,हार -पुष्प,सुहाग सामग्री आदि  चढ़ाकर दशा माता तथा पीपल के पेड़ का पूजन किया जाता है।कच्चे सूत के दस तार के डोरे का भी पूजन किया जाता है। पेड़ के चारों ओर कच्चा सूत लपेटकर परिक्रमा की जाती है साथ ही लडडू, हलवे या मीठे रोठ  का भोग भी लगाया जाता है। 

                                पूजन के बाद दशा माता की कथा सुनी जाती है और आरती की जाती है। कथा सुनने के बाद महिलाएं नया डोरा गले में पहन लेती है , पुराने डोरे को पीपल के पेड़ की जड़ के पास गेहूं आदि के साथ मिट्टी में दबा दिया जाता है। पूजन के बाद महिलाएं पीपल के पेड़ की छाल को खुरचकर घर ले जाती है और इसे साफ कपड़े में लपेटकर अलमारी या तिजोरी में रखती हैं। पीपल की छाल को धन का प्रतीक माना जाता है।  मान्यता है कि ऐसा करने से घर हमेशा धन-धान्य से भरा रहता है। 

                माना जाता है कि दशा माता के डोरे को पूरा साल पहनना चाहिए और अगले साल पुराना डोरा उतार कर नया धारण करना चाहिए।  किंतु यदि ऐसा ना कर सके तो कुछ दिन पहनने के बाद कोई अच्छा दिन देखकर उस डोरे को उतार कर पूजा स्थल में रख देना चाहिए। यदि इतना भी ना कर सके तो उसी रात को डोरे को उतारकर पूजा स्थल में रख देना चाहिए और अगले वर्ष पूजा के बाद पीपल की जड़ के पास मिट्टी में दबा देना चाहिए।

                डोरा कैसे बनाएं:-


                 कच्चे सूत के 9 तार और एक सूत व्रत करने वाली महिला के आंचल से लेकर 10 सूत का डोरा बनाते हैं।  इसमें यदि ऐसा ना कर सके तो कच्चे सूत के ही 10 तार  लेकर डोरा बना लेते हैं, इसे हल्दी के रंग से रंग कर इसमें 10 गाँठे  लगा ली जाती है। पूजन के समय नए डोरे का भी पूजन किया जाता है और पुराने डोरे को पूजन के पश्चात पीपल के पेड़ की जड़ के पास मिट्टी में दबा दिया जाता है।  

                व्रत विधान:-


                 इस दिन महिलाएं प्रातः काल स्नान कर संपूर्ण श्रृंगार करती है और व्रत का संकल्प लेती है। इस दिन महिलाएं एक ही समय भोजन करती है। भोजन में नमक का उपयोग नहीं किया जाता तथा भोजन में एक ही प्रकार के अन्न का, विशेषकर गेहूं का प्रयोग किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि दशा माता के पूजन से पहले घर में किसी मेहमान का स्वागत नहीं किया जाता अर्थात उसे भोजन आदि बनाकर नहीं खिलाया जाता।

                दशा माता की कहानी:-


                 प्राचीन समय में राजा नल अपनी रानी दमयंती के साथ सुख पूर्वक राज्य करते थ। उनके राज्य में प्रजा सुखी और संपन्न थी, उनके दो पुत्र  थे। एक बार होली दशा के दिन एक ब्राह्मणी राज महल में आई और रानी से कहा दशा माता का डोरा ले लो। दासी बोली- रानी साहिबा आज के दिन सभी सुहागिन महिलाएं दशा माता का पूजन और व्रत करती हैं तथा इस डोरे की पूजा करके गले में बांधती है जिससे अपने घर में सुख- समृद्धि आती है। अतः रानी ने  डोरा ले लिया और विधि के अनुसार पूजन करके गले में बांध लिया।कुछ दिनों बाद राजा नल ने रानी दमयंती के गले में डोरा बंधा हुआ देखा तो बहुत नाराज हुए। कहने लगे कि इतने सोने के गहने पहनने के बाद भी आपने यह डोरा क्यों पहन रखा है। रानी कुछ कहती इसके पहले ही राजा ने उस डोरे को तोड़कर जमीन पर फेंक दिया रानी दमयंती ने डोरे को जमीन से उठाया और राजा से कहा यह तो दशा माता का डोरा है,आपने इसका अपमान करके अच्छा नहीं किया। जब रात को राजा सो रहे थे तब दशामाता उनके सपने में बुढ़िया के रूप में आई और राजा से कहा हे राजा तेरी अच्छी दशा चल रही थी किंतु तूने मेरा अपमान करके अच्छा नहीं किया ऐसा कहकर बुढ़िया (दशामाता) अंतर्ध्यान हो गई। अब जैसे जैसे समय बीतता गया राजा के ठाठ -बाट, धन- दौलत, सुख शांति सब कुछ धीरे-धीरे नष्ट होने लग गया और भूखे मरने की नौबत आ गई।एक दिन राजा ने दमयंती से कहा कि तुम अपने दोनों बच्चों को लेकर मायके चली जाओ रानी ने कहा मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी जिस प्रकार आप रहेंगे मैं भी वैसे ही आपके साथ रह लूंगी। तब राजा ने कहा हम अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्य में चलते हैं वहां जो भी काम मिलेगा वही कर लेंगे। इस प्रकार राजा नल और दमयंती अपने राज्य को छोड़कर निकल गए।

                                              चलते-चलते रास्ते में भील राजा का महल दिखाई दिया। वहां राजा ने अपने दोनों बच्चों को अमानत के तौर पर छोड़ कर आगे बढ़ गए। आगे चले तो रास्ते में राजा के मित्र का गाँव आया। राजा ने रानी से कहा चलो हमारे मित्र के घर चलते हैं, मित्र के घर पहुँचने पर उनका खूब आदर सत्कार हुआ और मित्र ने उन्हें अपने शयनकक्ष में सुलाया। उसी कमरे में मोर की आकृति की खूंटी पर मित्र राजा मित्र की पत्नी का हीरों का हार टंगा हुआ था,आधी रात में जब रानी की नींद खुली तो उसने देखा कि वह बेजान खूंटी हार को निगल रही है यह देखकर रानी ने तुरंत राजा को जगाया।दोनों ने सोचा कि सुबह होने पर मित्र को क्या जवाब देंगे इसलिए इस समय यहां से चले जाना चाहिए। राजा- रानी दोनों रात को ही वहां से चल दिए सुबह होने पर मित्र की पत्नी ने खूंटी पर अपना हार नहीं देखा तो पति से बोली -तुम्हारे मित्र कैसे हैं जो मेरा हार चुराकर रात में ही भाग गए।  मित्र ने अपनी पत्नी को समझाया कि मेरा मित्र कदापि ऐसा नहीं कर सकता धीरज रखो और कृपया उसे चोर मत कहो।

                  आगे चलने पर उन्हें एक नदी मिली राजा ने नदी में से मछलियां निकालकर रानी से कहा- तुम इन मछलियों को पकाओ तब तक मैं गांँव में से परोसा लेकर आता हूंँ , गांव का नगर सेठ सभी लोगों को भोजन करा रहा है। राजा गांँव में गया और परोसा लेकर आ रहा था कि रास्ते में चील  ने झपट्टा मारा, जिससे सारा भोजन नीचे गिर गया। राजा ने सोचा कि रानी को लगेगा कि राजा तो भोजन करके आ गया और मेरे लिए कुछ भी नहीं लाया। उधर रानी मछलियां पकाने लगी तो दुर्भाग्य से सभी मछलियां जीवित होकर नदी में चली गई। इधर रानी उदास होकर सोचने लगी कि राजा सोचेंगे कि सारी मछलियां रानी खुद ही खा गई।  जब राजा आए तो मन ही मन समझ गए और वहां से आगे चल दिए।

                 चलते-चलते रानी के मायके का गांँव आया, राजा ने कहा- तुम अपने मायके चली जाओ वहांँ दासी का कोई काम कर लेना, मैं इसी गांँव में कहीं कुछ काम ढूंढ लूंगा। इस प्रकार रानी महल में दासी का काम करने लगी और राजा तेली के यहां काम करने लग गए।  दोनों को काम करते-करते बहुत दिन हो गए, जब होली दशा का दिन आया तब सभी रानियों ने सिर धो कर स्नान किया ,दासी ने भी स्नान किया।  दासी ने रानियों के बाल बनाए तो राजमाता ने कहा कि मैं भी तुम्हारे बाल बना देती हूंँ। ऐसा कह कर जब राजमाता दासी बनी रानी दमयंती के बाल बनाने लगी तो उन्होंने दासी के सिर पर एक निशान देखा, यह देखकर राजमाता की आंँखें भर आई और आंसू छलक कर दासी की पीठ पर गिर गए।  दासी ने पूछा -आप क्यों रो रही हैं, राजमाता ने कहा -मेरी बेटी के सिर में भी ऐसा ही निशान है यही देखकर मुझे उसकी याद आ गई। तब दासी ने कहा मैं आपकी बेटी ही हूंँ, दशा माता के कोप से मेरे बुरे दिन चल रहे हैं, इसीलिए यहां आ गई। माता ने कहा- बेटी तूने यह बात हमसे क्यों छुपाई। रानी दमयंती बोली- मां अगर मैं सब कुछ बता देती तो मेरे बुरे दिन नहीं करते। आज मैं दशा माता का व्रत करूंगी और उनसे गलती की क्षमा याचना करूंगी। राजमाता ने बेटी से पूछा कि हमारे जमाई राजा कहांँ है, तब बेटी बोली कि वह भी इसी गांँव में किसी तेली के घर काम कर रहे हैं।  गांँव में उनकी खोज कराई गई और उन्हें पूरे मान सम्मान के साथ महल में लाया गया। जमाई राजा को स्नान कराया गया, नए वस्त्र पहनाये है और उनके लिए पकवान बनाए गए।

                अब दशा माता के आशीर्वाद से राजा नल और रानी दमयंती के अच्छे दिन लौट आए। कुछ दिन वही बिताने के बाद वह अपने राज्य की ओर चल दिए।रानी दमयंती के पिता ने उन्हें खूब सारा धन, लाव  लश्कर, हाथी-घोड़े आदि देकर विदा किया। रास्ते में वही जगहआई जहां रानी ने मछलियों को पकाया था और राजा के हाथ से चील ने झपट्टा मारकर भोजन गिरा दिया था। तब राजा ने कहा -तुमने सोचा होगा कि मैंने अकेले भोजन कर लिया है परंतु चील ने झपट्टा मार कर गिरा दिया था। तब रानी बोली- आपने भी सोचा होगा कि मैंने मछलियां अकेले ही खा ली परंतु वह तो जीवित होकर नदी में चली गई थी।

                 चलते-चलते अब राजा की बहन का गांँव आया, राजा ने बहन के यहां खबर भेजी। बहन ने खबर देने वाले से पूछा कि उनके हाल चाल कैसे हैं तो उसने बताया कि वह बहुत अच्छी दशा में है, उनके साथ हाथी-घोड़े, लाव-लश्कर है। यह सुनकर राजा की बहन मोतियों की थाल सजाकर लाई। तभी रानी दमयंती ने धरती माता से प्रार्थना की और कहा मांँ आज मेरी अमानत मुझे वापस दे दो। यह कहकर उस जगह को खोदा ,जहां कांदा रोटी गाड़ दिया था। खोदने पर रोटी तो सोने की और कांदा चांदी का हो गया। यह दोनों चीज बहन की थाली में डाल दी और आगे चलने की तैयारी करने लगे। वहांँ से चलकर राजा अपने मित्र के घर पहुंँचे।  मित्र ने पहले के समान ही उनका आदर सत्कार किया और रात को उन्हें अपने शयनकक्ष में सुलाया। मोरनी वाली खूंटी के हार निगलने वाली बात को याद करके उन्हें नींद नहीं आई। आधी रात के समय वही मोरनी वाली खूंटी हार को उगलने लगी तो राजा ने अपने मित्र को जगाया और रानी ने मित्र की पत्नी को जगा कर दिखाया कि आपका हार तो इसने निगल लिया था, आपने सोचा होगा कि हम हार चुरा कर ले गए।   

                दूसरे दिन प्रातः काल राजा- रानी वहांँ से चल दिए और भील राजा के यहांँ पहुंँचे, वहां जाकर उन्होंने राजा से अपने पुत्रों को मांँगा तो राजा ने देने से मना कर दिया। तब गांँव के लोगों ने उन बच्चों को वापस दिलाया। राजा- रानी अपने बच्चों को लेकर जब अपने राज्य के निकट पहुंँचे तो नगर वासियों ने लाव- लश्कर के साथ उन्हें आते हुए देखा तो सभी बहुत प्रसन्न हुए। सब ने गाजे-बाजे के साथ उनका स्वागत किया और उन्हें महल तक पहुंचाया। राजा का पहले जैसा ठाठ-बाट,वैभव था ,सब कुछ वैसा ही हो गया।

                                     हे  दशा माता जैसा कोप  राजा नल और दमयंती पर किया था वैसा किसी पर मत करना और बाद में जैसी कृपा करी थी वैसी सभी पर करना।  

                                                                              जय दशा माता